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मेरे आसपास चैपियंस ट्राफी का रोमांच है. क्रिकेट मेरा पैशन है. ऐसे मुकाबले इसमें और इजाफा कर देते हैं. इसी नशे के बीच हमसे ख्वाहिशों का जिक्र होता है. क्या थे, क्या हो गए, क्यूं हो गए इस बारे में टटोला जाता है. क्या बाकी रह गई हैं ख्वाहिशें ? इसकी तस्दीक होती है. चलें इसी बहाने थोडा नॉस्टलजिक हो जाएं .
कई बार मेरे आसपास के दोस्तों ने पूछा- क्या आईआईएम की डिग्री के बाद क्रिकेट को प्रोफेशन बनाना बिग रिस्क नहीं था ? फेल्योर हो जाते तो ? ऐसा क्यूं किया. मेरे पास वजह थी. रिस्क उठाया, क्योंकि कुछ मोर्चे पर खुशनसीब भी था. पत्नी अनीता अच्छी जॉब करती थी. तब के बंबई आज के मुंबई में अपना मकान था. राज की बात एक और है. तब आईआईएम वालों को इतना पैकेज भी तो नहीं मिलता था. तो कई पॉजिटिव कारण थे, जिससे मैं अपने प्रोफेशनल इश्क को कॅरियर में बदलने का रिस्क ले सका था. साथ में इस बात का कांफिडेंस तो था ही कि अगर इसमें कुछ खास न कर सका तो डिग्री के बहाने एड वर्ल्ड की दुनिया में ज़ॉब तो मिल ही जाएगी. एक बात और. तब के मैच सिर्फ दूरदर्शन पर आते थे. साल में एकाध मैच ही मिल पाते थे. फ्रीलांसर की तरह काम करता था. मेहनत बहुत थी. पैसे कम थे. नाम कम था. पर सच कहूं, मजा तब अधिक आता था. क्यूं, इस कदर नाम, पैसे के बावजूद अब इसे जानने की कोशिश कर रहा हूं. शायद तब मैं जिंदगी के बहुत करीब था.
सच कहूं तो कई ख्वाहिशें पूरी हुई हैं, लेकिन हर आदमी के सामने कुछ लक्ष्य होने चाहिए नहीं तो अंदर जो एक उमंग होती है, वो खत्म हो जाती है. मैं टीवी पर क्रिकेट कमेंट्री करता रहूं, यह सिर्फ इसलिए कि मुझे मजा आता है. इसलिए नहीं कि मेरी रोजी-रोटी वहां से आती है. इसके अलावा मैं अपनी पत्नी की मदद करता हूं. कई कंपनियों के लिए काम करता हूं और उसमें भी बहुत मजा आता है.
मेरी एक ख्वाहिश है, जब वक्त आएगा तो मैं क्रिकेट या टीवी में जो भी हासिल किया होगा, उससे लोगों की मदद करुं. अगर मेरे करीबी लोग यह कह सकें कि यह अच्छा आदमी था, तो मैं अपने आप को धन्य मानूंगा.
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